मेरे बस की बात नहीं

 मेरे वश की बात नहीं "

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 रस छंद अलंकार रहित

भाव विलीन तुकबंद सुशोभित 

विभिन्न भाषाओं के समावेश में 

उमड़ते भाव के मनोवेग से 

मन में आया कि प्रसाद जी की

 कामायनी सा नव काव्य रचूं 

साहित्य को नव धाराप्रवाह का रूप दूं 

उमड़ते भाव क़लम से कर साकार

त्वरित लोकप्रियता का प्रयास करूं 

फिर क्षणभर कर विचार अब मै

 स्तब्ध हूं मुक्तक मोती कुंद कलम से 

साहित्य सृजन शब्दकोश के अभाव में 

हिन्दी के पूरक का मुझे ज्ञान नहीं 

यह मेरे वश कि बात नहीं 

मैं शब्द भंडार से वंचित हूं 

त्याग दूं विचार लिखने का 

यह मेरे वश की बात नहीं 


©®देवसिंह गढ़वाली

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