चेतना की पुकार

   चेतना की पुकार 21/06/25

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जाते-जाते कह गए जग से,  

संतों के ये उच्च विचार —  

निर्धन का सब कर निरादर,  

प्रतिष्ठित से प्रेम अपार।  


जब तक माथे पर चंदन है,  

और गले में फूलों का हार,  

स्वयं को समझे उच्च विचारी,  

निश्छल को कहे तुच्छ गंवार।  


रखा कटोरा दुख का आगे,  

निर्लज्ज कहकर दें दुत्कार —  

सरलता को सब दुर्बल समझे,  

दुर्बल संग करें दुर्व्यवहार।  


मिथ्या के जो दीप जलाएं,  

और पहनाएं छल के हार —  

वही जगत में पूजा जाए,  

संत कह गए बारंबार।  


पाश्चात्य से प्रभावित होकर,  

भूल रहे हैं हम सब संस्कार —  

चिर पुरातन पुरखों की थाती,  

निज जड़ता होती संहार।

 ©देव सिंह गढ़वाली 



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