आश || Aash ||हिन्दी कहानी

 || आश ||

शाम का समय था पशु पक्षी अपने अपने आश्रय की ओर अग्रसर थे, किन्तु एक कौंशी का घर था कि जहाँ लोगो का अभी भी आना- जाना जारी था , या यूँ कहे कि कौंशी के घर में लोगों का तांता सा लगा हुआ था | 

   कौंशी दो बच्चों की माँ थी बड़ा बेटा अशोक दसवीं कक्षा का छात्र था , और छोटा अनिल आठवीं का, पति दयाल सिंह दिल्ली में एक प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी का मुलाजिम था | 

     उस वर्ष ( 2013) में दयाल सिंह गर्मियों में अवकाश लेकर कौंशी की जिद्द पर केदारनाथ घुमने के लिए आया था | किन्तु प्राकृतिक आपदा ने सबकुछ तहस नहस कर दिया जिसका खामियाजा कौंशी को भी भुगतना पड़ा अर्थात कौंशी का पति दयाल सिंह गाँव वालो के जत्थे से बिछड़कर कहीं खो गया था ! कौंशी ने बड़ी आवाजें लगाईं चारों ओर निगाहें दौडाई मगर सब बेकार,कोई फायदा नही दयाल सिंह का कोई पता नही मिला , दयाल सिंह को जत्थे से अलग होकर खोजना मतलब बच्चों को भी त्यगने जैसा था! विवश होकर वह बच्चों को लेकर जत्थे के साथ गाँव चलीं आयीं | लोगों को जब से यह बात ज्ञात हुईं कि कौंशी का पति दयाल सिंह केदारनाथ आपदा में कहीं खो गया है तब से उसके घर में शोक व्यक्त और ढाढस बधाने  वालों का तांता सा लगा हुआ है 

    कौंशी शोक,व पछतावे में डूबीं हुई थी आखिर क्यूँ जिद्द की मैंने केदारनाथ घुमने की, आज कौंशी को केदारनाथ से लौटे हुए करीब सोलवा दिन था समय के साथ- साथ लोगों का आना- जाना धीरे- धीरे सामाप्ति पर था |

      समयानुकूल अब सारा दारोमदार अशोक के कंधों पर था! और वह समय की मांग को समझते हुए  उस वर्ष का इम्तिहान देकर चाचा  पूरण सिंह जी के साथ सूरत में एक कपड़े की कम्पनी में नौकरी पर भी लग गया और परिवार की जरुरतें पूरी करने लगा | 

    छोटा जरा चंचल स्वभाव का था जैसे तैसे वह दसवीं करके देहरादून एक होटल में नौकरी करने लगा  किन्तु चंचलता वश वहाँ से छोड़कर ऋषिकेश में एक होटल में आ गया | 

 ऋषिकेश की ठण्ड और शीतकालीन ऋतु का समय चाय अक्सर हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करतीं हैं ! अनिल भी एक नजदीकी चाय वाले के पास रोजाना पहुँच जाता, वैसे तो वहाँ पर चाय वालो की दो- एक दुकाने ओर भी थी किन्तु उसकी चाय के बड़े चर्चे थे वहाँ पर अनिल भी अधिकांशतःउसी चायवाले के पास चाय पिता 

   सफेद बाल, चेहरे पर झुर्रियाँ, आंखें अन्दर की ओर धंसी हुई, और शरीर स्पष्ट रूप से कमजोर दिखाई देता था थोड़ा सा लंगड़ा कर चलना ! ऐसा जान पड़ता था कि आदमी मानो यह आदमी महीनों से किसी बीमारी का मरीज हो |

   अनिल वहाँ रोजाना चाय पिने जाता और उससे  खूब बातें करता ! एक दिन एक क्षेत्रीय व्यक्ति से  अनिल उस चायवाले के विषय में परिचर्चा करने लगा  जिसके फलस्वरूप उसे ज्ञात हुआ कि यह केदारनाथ आपदा में बुरी तरह से फंस गया था, जिस प्रकार हजारों लोग फंसे थे, वो तो शुक्र है भारतीय सैन्य बल वालों का जिन्होंने इसे मौत के मुहं से बचाया है ! तब से शायद इसकी स्मृतियाँ भी दुर्बल हो गयी है और लंगड़ा कर चलना तो आप देख ही रहे हो |  

     कुछ दिन यह एक सब्जी की रेड़ी भी लगाता था किन्तु एक सज्जन के आग्रह पर वर्षों से अब चाय की दुकान चलाता है ! और अब एक चर्चित चायवाले के रूप में जाना जाता है! एक बार दारू के नशे में इसने बताया कि इसके दो बच्चे थे जो यह केदारनाथ आपदा में कहीं खो चुका है और अब भगवान जाने जिन्दा है या नहीं | 

     अनिल को अब तो उस चायवाले से लगाव  सा हो गया और वह दिन में दो बार चाय पिने जाता एक दिन सयोग वश बातों बातों में उसे पता लगा कि यह आदमी ओर कोई नहीं उसके पिता दयाल सिंह ही है , जिसे उन्होंने केदारनाथ आपदा में खोया था, और उसे अपने बाल बच्चों की चिंता ने समय से पूर्व  क्षीण अवस्था में ला दिया था !  स्मृतियाँ दुर्बल होने के कारण यहीं पर जीवन निर्वाह कर रहा है |

  जब दयाल सिंह अनिल के साथ जब गाँव लौटा तो वास्तव में उसे पहचानना असम्भव सा हो रहा था ! गाँव आकर दयाल सिंह को पता लगा कि बड़ा बेटा अशोक सुरत मे कपड़े की कम्पनी में नौकरी कर रहा है और कौंशी ने उसका ब्याह भी कर दिया है पत्नी उसके साथ ही रहतीं है |

     समय दुनिया का सबसे असरदार मरहम होता है , दयाल सिंह के लिए भी साबित हुआ ! उसकी शियत में निरंतर परिवर्तन आने लगा था | अब वह दिन प्रतिदिन कमजोर से सामान्य स्थिति में आने लगा! 

      दयाल सिंह जब लोगों के मध्य होता तो समय बड़ी आसानी से कट जाता किन्तु जब वह अकेले में होता तो उसे अक्सर केदारनाथ आपदा की हृदय भेदन स्मृतियाँ से सहमा सी देतीं, कहीं अनेकों मानव शव  |

    शायद उसे घर आये अभी  मुश्किल से चार मास भी नहीं बीते थे कि  एक रात अकस्मात हृदय गति रुकने से स्वर्ग सिधार गया |

   अशोक ने पिता दयाल सिंह की अंत्येष्टि उपरांत  कौंशी को कई मर्तबा साथ चलने को कहा किन्तु कौंशी का सदैव एक ही उत्तर मिलता बेटा जब तक हाथ पाव चल रहे हैं तब तक ठीक है फिर तो तुमने ही ले जाना है अशोक कौंशी को साथ ले जाने में नाकाम रहा  |

   समय कभी किसी के लिए मरहम का कार्य करता है और कभी किसी के लिए किसी नासूर का, यथास्थिति कौंशी के साथ भी हुईं दयाल सिंह के मरणोपरांत पति शौक में दिन प्रतिदिन शरीर क्षीण होने लगा भोजन व कार्य क्षमता में निरंतर अवनति आने लगी मानों किसी ने उसे  धीमा जहर (स्लो पॉइज़न) दिया हो |

      यूँ तो उसने पति वियोग मे पहले भी वर्षा अकेले काटे थे किन्तु तब वह दयाल सिंह की आश मे एक उम्मीद लगाए रहतीं थी, तब उसने न तो माथे का सिंदूर पौछा था न बेरंग कपड़े धारण किये ! किन्तु अब उसे स्पष्ट रूप से ज्ञात था |

      बड़े बेटे अशोक को तो वह पहले ही ब्याह चुकीं थी किन्तु अनिल अभी भी अविवाहित था उसे सुबह शाम यही चिंता खाये जाती थी किन्तु परस्थितियों के आगे वह कुछ कर भी नहीं सकतीं थी! पति का शौक और पुत्र  विवाह की चिंता ने कौंशी को कांटे के समान बना दिया था !       जब देह क्षीण और चिंताग्रस्त हो तो जेष्ठ मास की धूप भी बेअसर होती है , एक रोज़ बेचारी कौंशी सुबह- सुबह धूप में बैठीं खांसते- खांसते प्राण त्याग गयी और सारी  चिंताएं और जिम्मेदारियां  नवपीढी के लिए छोड़ गयी | 

  आनन- फानन में अनिल और अशोक दोनों भाईयों को फोन किया गया, किन्तु सामान्यतः सूरत से अतिशीघ्र आना सम्भव भी तो नहीं दोनों के समय पर न पहुचने के कारणवश कौंशी के नसीब में दो पुत्रों के होते हुए मुखाग्नि भी नहीं रहीं | 

  वह दोनों आये किन्तु दह संस्कार के उपरांत ! गाँव के एक चचेरे भाई ने अब तक की सारी प्रक्रिया विधिवत् ढंग से निभाई , मिलतें मिलाते सोते जागते अन्ततः तेहरवीं का दिन भी आ गया! पंडितों को विशेष आमंत्रण पर बुलाकर सर्वप्रथम भोजन करवाकर विदाई दी गई  गाँव वालों को भी आदर सहित भोज परोसा गया | 

   तेहरवीं निपटते ही अगले दिन दोनों भाई अपनी अपनी नौकरी पर जाने के लिए तैयार खड़े थे कि एक वृद्ध ने अशोक से कहा बेटा जा रहे हो क्या??? एक दो दिन ओर रुक जाते तो पित्रोड भी हो जाता |

   जी चाचा जी आप तो जानते ही हो आज के युग में नौकरी कितनी मुश्किल से मिलतीं है, हम लोग पहले ही...... अधिक अवकाश कर चुके हैं ! और आपसे यह बात छिपी नहीं है कि अगर दो दिन अतरिक्त अवकाश हो जाये तो अगले महीने के खर्चो में कितनी तंगी होती है, और नौकरी का भी भरोसा..... 

   और वह दोनों चल दिए बेचारा वृद्ध पीछे कहता ही रह गया हे राम इस बेचारी कौंशी के भाग में दो पुत्रों के होते हुए भी मुखाग्नि, व पित्रोड भी नहीं है | ( एक उत्तराखण्ड की मरणोपरांत एक महीने के भीतर निभाये जाने वाली जिसे गढ़वाल क्षेत्र में पित्रोड व कुमाऊँ मण्डल में तिबाकुल, अर्थात लिंगवासा के नाम से भी जाना जाता है ) 

©®अतुल शैली

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