# हर्षदेव जोशी
# कुमाऊँ में गोरखा शासन
# गढ़वाल पर गोरखा आक्रमण
# खुड़बुडा़ युद्ध
# गोरखाओं का अत्याचार
# गोरखा शासन का अन्त
उत्तराखंड में गोरखा शासन
https://www.atulyaaalekh.com/2022/03/10323.html
सम्पूर्ण भारत वर्ष की भाँतिं उत्तराखण्ड में भी समय समय पर भिन्न भिन्न राजवंशों का निरन्तर बदलाव होता रहा है,जिसकी पुष्टि हमें उत्तराखण्ड की पौराणिक कथाएं और ग्रन्थों में पढ़ने और सुनने को मिलती है ! कभी पंवार ,चंद तथा कत्यूरी वंश इत्यादि !
इनके बीच आपसी फूट प्रतिस्पर्धा और आपस में प्रतिद्वंद्वी के कारणवश बहारी लोगों ने आक्रमण कर नवराज्य गठन का प्रयास किया जिसमें मूलतः गोरखा शासन समिलित हैगोरखा शासन (गोरखा मूलतःनेपाल के निवासी थे)और बहुत ही साहसी और लडाकू किस्म के लोग थे इनक मुख्य हथियार खुकरी था हालांकि समय अनुसार इन्होंने बन्दूक का प्रयोग भी किया था !
हर्षदेव जोशी
"हर्षदेव जोशी जो कि राजा दीपचंद के शासनकाल में एक मन्त्री पद पर आसिन था ,मोहन चंद के साथ आपसी मतभेद होने के कारण कभी गढ़वाल राजा को तो कभी गोरखाओं को कुमाऊँ पर आक्रमण करने हेतु आमंत्रित किया !हर्षदेव जोशी ने समय समय पर अपनी कुटिलता और षडयंत्रता का परिचय देते हुए ,चंद वंश के शासन काल में कई तरह से उथल पुथल करवाने में मुख्य भूमिका निभाई !
कुछ पौराणिक कथाओं में हर्षदेव जोशी को कुमाऊँ का चाणक्य ,तो कई जगह देशद्रोही विभीषण की उपाधि भी दी गई है !
कुमाऊं में गोरखा शासन
बात लगभग जनवरी 1790 की आसपास की है तब कुमाऊँ मण्डल में चंद वंश के (60वे) राजा मोहन चंद के पुत्र ( महेंद्र चंद)का शासन काल था और चंद वंश में आपसी फूट पड़ी हुई थीइसी बीच नेपाल शासक रण बहादूर शाह या निर्गूणानंद शाह ने हर्षदेव जोशी के बुलावे पर ,बहादुर शाह काजी, जगजीत पाण्ड़े अमरसिंह थापा , प्रथम सुब्बा जगनारायण मल्ल, तथा सूरसिंह थापा के नेतृतव में कुमाऊँ पर धावा बोल दिया माना जाता है कि यह आक्रमण तीन तरफ से किया गया था जिसकी रणनीति हर्षदेव जोशी के द्वारा ही तय की गई थी !
पहला आक्रमण " परगना सौर दूसरी ओर विसुंग से और तीसरी और कुमाऊँ की राजधानी अल्मोड़ा पर " किया गया था !
आक्रमण की सुचना मिलतें ही राजधानी अल्मोड़ा सहित पुरे कुमाऊँ में खलबली सी मच गई, और राजा महेंद्र चंद ने एक सेना एकत्र कर गंगोली की ओर तो !
राजा महेंद्र चंद के चाचा लालसिंह काली कुमाऊँ के ओर बढे, राजा महेंद्र चंद ने गोरखाओं को गंगोली युद्ध में पछाड़ कर भागने पर मजबूर कर दिया !
राजा महेंद्र चंद तत्पश्चात चाचा लालसिंह की सहायता हेतु काली कुमाऊँ की और निकल पड़े किन्तु इससे पहले ही लालसिंह गोरखाओं से पराजित होकर तराई क्षेत्र की ओर निकल चुका था खबर मिलते ही राजा महेंद्र सिंह भी तराई क्षेत्र की ओर निकल पड़ा !
अन्ततः हवालाबाग युद्ध में महेंद्र चंद ने गोरखाओं को रोकने का भरपूर प्रयास किया किन्तु वीरगति को प्राप्त हो गये !
इधर तीसरी और गोरखाओं ने अमरसिंह थापा के नेतृत्व में स्वार्थी हर्षदेव जोशी की मदद से कुमाऊँ राजधानी अल्मोड़ा पर बड़ी आसानी से अधिपत्य कर लिया और , इस प्रकार हर्षदेव जोशी की मदद से चंद वंश का खात्मा के साथ सत्ता सीधे सीधे गोरखाओं के हाथ में आ गयी |
गोरखाओं की महत्वाकांक्षा यहीं पर नहीं रुकी उनकी नजर अब गढ़वाल पर थी !
गढ़वाल पर गोरखा आक्रमण
उस समय गढ़वाल में पंवार वंश का 54वा राजा प्रद्युम्न शाह गददी पर बिराजमान था और प्रद्युम्न के भाई पराक्रम शाह के मध्य आपसी मतभेद कुछ अच्छे नहीं थेगोरखाओं का कुमाऊँ पर विजय प्राप्ति के पश्चात राज्य विस्तार लालसा बढने लगी और गोरखाओं का ध्यान गढ़वाल की और गया 1791 में हर्षदेव जोशी की मदद और सुझाव अनुसार गोरखाओं ने गढ़वाल पर आक्रमण कर दिया!
माना जाता है कि यहाँ भी गोरखाओं ने दो तरफ से आक्रमण किया था पहला चाँदपुर गढी पर! यह युद्ध एक लम्बे समय तक चला किन्तु गोरखाओं का नेतृत्व करने वाला गंगाराम के खात्मे के साथ ही गोरखाओं को मुह की खानी पड़ी ,और दूसरा लंगूर गढी ,कहा जाता है कि यह युद्ध लगभग एक वर्ष तक चला दोनों ही और से गोरखाओं को पराजय का सामना करना पड़ा !
किन्तु गोरखा इतनी आसानी से हार मानने वाले नहीं थे और गोरखाओं ने लंगूर गढी के पास के गाँवो में ही डेरा डाल कर उत्पाद मचाना आरम्भ कर दिया
किन्तु गोरखा आगे नहीं बढ सके , फलस्वरूप उन्होंने कुमाऊँ से मदद मांगी और लंगूर गढी की घेराबंदी कर दी ,
इसी बीच 1792 में नेपाल से खबर आयी कि चीन ने नेपाल पर हमला कर दिया ! नेपाल राजा रणबहादूर शाह दौतरफा युद्ध की स्थिति में नहीं थे इसलिए शीघ्र बुलावा सन्देश भेजा था असफल गोरखा चिन्तित हो गए!
असफल गोरखाओं के लिए यह मानो आत्म सम्मान जैसा विषय था यधपि कालू पांडे और अमरसिंह थापा ने हिम्मत करके एक सैन्य टुकड़ी को लेकर श्रीनगर पहुँच गया !
ओर वहाँ एक सन्धि तय की गई जिसे श्रीनगर सन्धि के नाम से जाना जाता है, ,फलस्वरूप गढ़वाल राजा द्वारा गोरखा शासन पर मुख्य रूप से 25000 रुपये कर देना , और फिर से आक्रमण ना करने का बचन मांगा, सन्धि विषय पर शर्तें तय हुई ! तत्पश्चात गोरखा चीन युद्ध हेतु नेपाल लौट गए !
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खुड़बुड़ा युद्ध
कुछ समय पश्चात गोरखा ने श्रीनगर सन्धि का उल्लंघन करते हुए , गढ़वाल में उत्पाद आतंक और लूटमार जैसे अत्याचार प्रारंभ कर दिये कुछ महिलाओं और बच्चों को बंदी बनाने लगे , और उस दौरान प्रजा का जीवन बड़ा दहशत पूर्ण और कष्टमय हो गया !वर्ष1803 में गढ़वाल में भुकम्प ,अकाल, जैसे प्राकृतिक आपदाएं आयी थी और गढ़वाल की सामजिक तथा मालि स्तिथि छिन्न भिन्न हो गयी !
इसी आपदा का अवसर देखते हुए गोरखाओं ने ,अमर सिंह थापा हस्तिदल चोतरिय के नेतृत्व में एक बार पुनः गढ़वाल राजधानी श्रीनगर पर धावा बोल दिया
किन्तु गढ़वाल राजा प्रद्युम्न शाह पूर्ण परिवार जनो सहित दून घाटी में स्थानांतरित कर चुके थे ,
राजा प्रद्युम्न शाह और गोरखाओं के मध्य एक साल के अंतराल तक युद्ध होतें रहे कभी बाराघाट ( उत्तरकाशी) तो कभी चम्बा टिहरी में और अन्ततः यह युद्ध खुडबुडा मैदान में लड़ा गया जिसमें गोरखा सैना और गढ़वाल सैना आमने सामने थी !
राजा प्रद्युम्न शाह की और से शाह पुत्र सुर्दशन शाह देवसिंह शाह भाई पराक्रम शाह ने भी पूरा साथ दिया , और खुड़बुडा़ मैदान में एक भीषण युद्ध हुआ 13 दिनों तक एक भीषण युद्ध के दोरान 14 मई 1804 गढ़वाल नरेश पर गोली लगने के कारण वश राजा प्रद्युम्न शाह वीरगति को प्राप्त हो जाते हैं !
इसी के साथ पूर्ण रूप से गढ़वाल में भी कुमाऊँ की भाँति गोरखा शासन स्थापित हो जाता है देवीसिंह शाह को बंदी बनाया गया किंतु सुदर्शन शाह किसी तरह जान बचाकर युद्ध से भागने में सफल हुए !
गोरखाओं का अत्याचार
गोरखाओं ने गढ़वाल में 1804 से 1815 तक और कुमाऊँ में 1790 से 1815 तक शासन किया !इस काल में माना जाता है कि इस काल में उत्तराखंड की जनता की बड़ी दूरगति, कत्लेआम और नाना प्रकार के अत्याचारो से जूझना पड़ा !
इस दौरान उन्होंने आम जनता पर भिन्न भिन्न प्रकार के आत्याचार जबरन कर वसूला ,भूमि कर में बढोत्तरी ,ब्राहमणों से एक बिशेष प्रकार का कर वसूला जाता था जिसे कुशहि कर प्रणाली जो जाना जाता था !
जोकि इससे पूर्व कभी नहीं लिया गया ! गोरखा सिर्फ और सिर्फ उपध्याय तथा पांडे को ही ब्राहमणों का दर्जा देते थे!
इस काल में आम जनता अत्यधिक पीड़ित और कष्टकारी मानी जाती है गोरखा शासन को कुशासन और यमराज शासन की संज्ञा भी दी जाती है !
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परन्तु गढ़वाल का आधा भूभाग अंग्रेजों ने अपने आथीन कर दिया और साथ ही राजधानी को टिहरी में स्थानांतरित कर दी गई !
इसी प्रकार हर्षदेव जोशी ने भी कुमाऊँ में गोरखा शासन समाप्ति हेतु अंग्रेजों को कुमाऊँ पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया और ! कर्नल निकोलस और कर्नल गार्ड़नर ने अप्रैल 1815 में कुमाऊँ के अल्मोड़ा पर कब्जा कर दिया !
27 अप्रैल 1815 में कर्नल गार्ड़नर और गोरखा शासक बमशाह के मध्य एक सन्धि पर हक्ष्ताक्षर किये गए जिसके तहत गोरखाओं ने अन्ततः कुमाऊँ मण्डल अंग्रेजों को सोंप दिया !
गोरखाओं की निरंतर पराजय के बाद 28 नवम्बर 1815 में चम्पारण बिहार में संगोली सन्धि पर हक्ष्ताक्षर किये गए किन्तु गोरखाओं को ये सन्धि मान्या नहीं थी !
अन्ततः अंग्रेजों ने फरवरी 1816 में नेपाल पर चढाई कर एक बार पुनः गोरखाओं को पूर्णतः पराजित कर दिया , फलस्वरूप गोरखाओं ने सगोली सन्धि स्वीकृति कर साथ साथ गोरखा शासन का अन्त हेतु बाध्य हो कर नेपाल चले गए ||
गोरखा शासन का अन्त
सुर्दशन शाह के प्रोत्साहन पर अंग्रजो ने अक्टूबर 1814 से 4 मार्च 1814 तक चली एक लम्बी लड़ाई के बाद आखिरकार गढ़वाल में अंग्रेज शासन स्थापित करने में सफल हुए , और तत्पश्चात गढ़वाल में सुदर्शन शाह को राजा घोषित कर दिया !परन्तु गढ़वाल का आधा भूभाग अंग्रेजों ने अपने आथीन कर दिया और साथ ही राजधानी को टिहरी में स्थानांतरित कर दी गई !
इसी प्रकार हर्षदेव जोशी ने भी कुमाऊँ में गोरखा शासन समाप्ति हेतु अंग्रेजों को कुमाऊँ पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया और ! कर्नल निकोलस और कर्नल गार्ड़नर ने अप्रैल 1815 में कुमाऊँ के अल्मोड़ा पर कब्जा कर दिया !
27 अप्रैल 1815 में कर्नल गार्ड़नर और गोरखा शासक बमशाह के मध्य एक सन्धि पर हक्ष्ताक्षर किये गए जिसके तहत गोरखाओं ने अन्ततः कुमाऊँ मण्डल अंग्रेजों को सोंप दिया !
गोरखाओं की निरंतर पराजय के बाद 28 नवम्बर 1815 में चम्पारण बिहार में संगोली सन्धि पर हक्ष्ताक्षर किये गए किन्तु गोरखाओं को ये सन्धि मान्या नहीं थी !
अन्ततः अंग्रेजों ने फरवरी 1816 में नेपाल पर चढाई कर एक बार पुनः गोरखाओं को पूर्णतः पराजित कर दिया , फलस्वरूप गोरखाओं ने सगोली सन्धि स्वीकृति कर साथ साथ गोरखा शासन का अन्त हेतु बाध्य हो कर नेपाल चले गए ||
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My Article
Nice information
जवाब देंहटाएंNice & Good infometoin
जवाब देंहटाएंThank you
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