ज्ञान गुफा

 **ज्ञान गुफा**

सोच रहा हूँ हर पल हर क्षण 

क्या कहूँगा हरि से जाकर

जग में रहकर क्या किया

कितनों के मैंने प्राण हरें

कितनौं पर  उपकार किया 

जग में  रहकर क्या किया  ||


अब जीवन के उस पड़ाव पर हूँ

जहाँ से आगे कोई राह नहीं 

मोक्ष ही है अब अन्तिम इच्छा

 पर मैंने ऐसा कुछ तो किया नही

बड़े मूल्य से जन्म मिला था

जीवन पा कर क्या किया

जग में  रहकर क्या किया ||


मरणोपरांत सौं प्रश्नों के घेरे होंगे 

हर प्रश्नोत्तर मुझे देने होंगे 

कितना मैंने सत्य कहा

कितनों के संग छल किया

बड़े विलम्ब से आँख खुली हैं 

जब पूरा जीवन भोग लिया

क्या कहूँगा हरि से जाकर

 जग में  रहकर क्या किया ||


द्वार पर आये भिक्षुक से  

कैसा मैंने व्यवहार किया 

कितना दान स्वार्थ में किया

निस्वार्थ को क्यूँ  दुत्कार दिया

हरि हर क्षण का हिसाब पुछेंगें

जीवन का कैसा रसपान किया

क्या कहूँगा हरि से जाकर

 जग में  रहकर क्या किया ||


जिस गुफा मे बीता जीवन

वह हर गुफा अन्धेरी थी 

अब जागा हूँ बडे़ विलम्ब से

जब कल का भी तो पता नहीं

कर लूँ दान पूण्य निर्धन की सेवा

जीवन जितना शेष रहा

क्या कहूँगा हरि से जाकर

 जग में  रहकर क्या किया ||

©® देवसिंह गढवाली

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