बुनों कु जीवन मंन्खी समान
झाड़ू का जीवन मनुष्य की भाँति
broom life like a human
======================एक उत्तराखण्ड की लोक चर्चित क्षेत्रीय भाषा में स्वरचित गढवाली कविता की पंक्तियाँ जिसमें मानव जीवन को एक झाड़ू के जैसे बताने की कोशिश की गई है!
जिस प्रकार झाड़ू ताउम्र कम हो या अधिक सामर्थ्य अनुसार अन्दर बाहर यहाँ तक की आंगन कोभी साफ करता है और अंततः ....!
और जब हमे जब उस झाड़ू की जरूरत नही होती तो बेपरवाह वही झाड़ू फैंक दिया जाता है कुछ ऐंसी ही स्थति मानव जीवन में हमारी भी होती है ! जब तक हाथ पांव चलते हैं सबके प्यारे बने रहते हैं किंतु....
एक झाड़ू की भाँति हमको क्षीण अवस्था में वृद्ध आश्रम या फिर......... लगभग छोड़ दिया जाता है
बुनों कु जीवन मंन्खी समान
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भैर स्वार भितर स्वार
बगत बगत गुठ्यार स्वार
कमजोर हुंणू रोऊँ पर
कमर कसि की कुणों
कुणों खेड़ पात स्वार !
भैर स्वार भितर स्वार.....
भावार्थ
बाहर साफ किया अंदर साफ किया
समय- समय पर आंगन साफ किया
दिन- प्रतिदिन क्षीण होता रहा पर
कस - कसकर कोना - कोना साफ किया
बाहर साफ किया अंदर साफ किया
पैलि पैलि ता मिल अदा
स्वार अदा छ्वाढ फैरि
पूरु सुरणो कू ख्याल राख
आज तिला टुटणा छन
कैल यख धैरु कैल प्वार ध्वाऴ!
भैर स्वार भीतर.....
व्वाडी का मक्डजाऴा
कुण्योटों कु खैड़ गाड़
मै फर भी ज्वानू कु उमाऴ
दानौं की बुड्याण सार !
भैर स्वार भीतर....
कभी सौण की बरखा मा
भिज्जू ह्युंन्दा का सगर औरि
रूडी कू घाम द्याख
भैर स्वार ........
दिन गणि जौग जग्वाऴ
जब तक उम्र राई मेरी
सबूऴ मिथे सम्माऴी धार
अब कैऴ मि गुठ्यार चुऴो कैऴ मिथे गुज्यार ध्वाऴ !
भैर स्वार भीतर.....
https://www.atulyaaalekh.com/2021/12/lockdown-161221.html
बुरु ना मन्या आज
मेरि बारी भोऴ
तुमरी भी आण
जोंका बानों भीतरु
भीतरु रिंगणू रौ
ऊंही मंख्युऴ आज
मिथे गुज्यर ध्वाऴ !
भैर स्वार भीतर स्वार....