चार कदम चल कर घर से,
निकली शाम सैर सपाटे में,
थोड़ी दूर खड़े दो व्यक्ति,
व्यस्त थे जीवन व्यथा सुनाने में,
बातें उनकी सुनकर,
मैं क्षणभर वहीं ठहर गई,
एकचित मन होकर,
जो देखा और सुना मैंने,
पन्नों पर वही बिखेरा मैंने,
ना बिछौना था मखमल का,
ना सिर पर छत थी, ना तन पर महंगें कपड़े थे,
खडा था खेत की पगडंडी पर,
चेहरे पर मुस्कान लिए,
खुश रहते हो इतना कैसे,
पूछा उसे किसी मुसाफिर ने,
मुस्कुरा कर, कहा गरीब ने,
ना कुछ खोने का डर है मुझे, ना ज्यादा पाने कि चाहत है,
जो मिल जाए दिनभर में,
संतोष मिले मुझे उसमें,
फिर बोला गरीब मुसाफिर से,
तुम ठहरे एक सम्पन्न व्यक्ति,
फिर चेहरे पर क्यूं उदासी है,
नम आंखों से बोला मुसाफिर,
जीवन भर कि कमाई को पाई पाई बचाया मैंने,
बंगला, गाड़ी, जेवर, एक एक करके जोड़ा मैंने,
जाने कितने खुशियों के पल गंवाए मैंने कमाने में,
लोभ लालच भरा हुआ मन अब सोचे अकेले में,
भूल गया था हर सुख नही खरीदा जाता दौलत से,
संतोष से बढ़कर ना सुख कोई जीवन में,
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करूं जो तुलना अपनी तुमसे,
तो खुद को निर्धन पाया है,
संतोष परम धन हो जिसके जीवन में,
वो धनवान भला निर्धन हो कैसे,
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