चल चलते है उस बचपन में,
जहां खेल अनोखे खेले थे,
गिरते, पड़ते, और हंसते रोते थे,
चल चलते है उस बचपन में,
जहां खेल अनोखे खेले थे,
छू कर आते है फिर से,
उन्ह बरसाती बूंदों को,
जिनमें अकसर हम भीगा करते थे,
कागज कि थी कश्ती और सावन के झूले थे,
हरे, नीले कांच के कंचे,ऊनी धागों से लिपटी पतंग उड़ाते थे,
चल चलते है उस बचपन में, जहां खेल अनोखे खेले थे,
आम, ककड़ी, माल्टा, मुंगरी, मसूर,
सब खाये थे चोरी से,
चल चलते है उस गांव में,
जिसकी मिट्टी में हम खेले थे,
चल चलते है उस बचपन में जहां खेल अनोखे खेले थे,।