आस

कभी निकला मै घर से सर्द हवाओं में,
तो कभी झुलसा गर्म हवाओं में,
पैदल ही निकल पड़ता हूं अक्सर घर से,
दो पैसे कमाने में,

       ढल जाती है उम्र सारी तुम्हें इंसान बनाने में,
       कभी समझो तो बेटा,
        क्या दिया है मैंने तुम्हें काबिल बनाने में,

बंद आंखों के खुलते ही सब मिलता तुम्हें जादू से,
कभी पूछो तो पापा से, कितने छाले पड़े हैं आपके पांव में,

          तुम्हें चाहत होती है पिज्जा बर्गर खाने कि,
           कभी पूछो तो पापा से,
           क्या इच्छा है आपको खाने कि,

अपनी ख्वाहिशों को दफन कर के,
तुम्हारे सपनों को नये पंख दिए,
कभी सोचो ना बेटा,
कितने समझोते करे खुद के सपनों से पापा ने,

          थका हुआ घर आता हूं,
          तुम्हारे पास रहने को,
          कभी तुम भी बैठो पास मेरे,
          अपनेपन का एहसास दिलाने को,

क्यूं ख्याल नही रखते हो अपना पापा,
थक गये हो, आप आराम करो,
मै हूं ना,
बस इतना ही तुम कह दो,

         नही रहेंगे हाथ पांव काम के,
         तो थोड़ी सेवा कर लेना,
          पित्र ऋण से मुक्त कर के,
          दूंगा आशीर्वाद तुम्हें ,


                         _ संगीता थपलियाल,



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